Thursday, November 26, 2009

निर्दोष

उनिन्दी आखों को मसलता
मैं स्वपन अपने खोजता हूँ
भूल बैठा था जिसे
वो अक्ष अपना खोजता हूँ

तू तो मेरा था ही कब
जो आज तुझ को कुछ कहूँ
जीवन के सब त्रास मेरे
तुझको क्या मैं रहूं ना रहूं

कर नयोच्छवर तुझ पे सबकुछ
खाली मन ने पाया क्या
होकर रहा बस एक तेरा
कभी दूसरे को अपनाया क्या

तुम तो ठहरी रूपमया
भटकाना मुझको फ़ितरत मैं था
मुझ पे था चाहत का साया
भटक जाना किस्मत मैं था

दोष मेरा बस यही है
निर्दोष मैं बन कर रहा
मदहोश तेरे आगोश में
बेहोश मैं बन कर रहा

अब जो आया होश में तो
मैं सत्य अपना जनता हूँ
भूल चुका था मैं जिसे
वो अक्ष अपना पहचानता हूँ

Saturday, October 10, 2009

हम तुमको तब भी चाहेंगे

जब जीवन की शाम ढलेगी
मृत्यु नींद सी जब चढ़ेगी
जब विलुप्त स्वपन हो जाएँगे
हम तुमको तब भी चाहेंगे

नयन दृष्टि जब खो जाएगी
सृष्टि भी ओझल हो जाएगी
जब रंग काले हो जाएँगे
हम तुमको तब भी चाहेंगे

बास सुबास जब खो रही होगी
रसना स्वाद पर रो रही होगी
जब कर्ण बहरे हो जाएँगे
हम तुमको तब भी चाहेंगे

ज़र ज़र देह जब लेटी होगी
किस्मत के संग हेठी होगी
जब प्राण पखेरू उड़ जाएँगे
हम तुमको तब भी चाहेंगे

लोक जब परलोक हो जायेगा
मन भी वापस ना आ पायेगा
जब निपट अकेले हो जाएँगे
हम तुमको तब भी चाहेंगे

संदेह यदि फिर भी है तुमको
तो सुनो यह कसम है हमको
यदि कोई दूसरा जीवन पाएँगे
हम तुमको तब भी चाहेंगे

Thursday, October 8, 2009

झूठे रिश्ते

अजीब रिश्तों मैं उलझ गई है ज़िंदगी
ज़िंदा तो सब है पर मर गई है ज़िंदगी
क्यूँ इस कदर बेबस हो चुके हैं हम
की बहाने ढूँढती है मुस्कुराने के ज़िंदगी

रिश्तों की डोर मैं तनाव इतना ज़्यादा है
इसको तोड़ने का ही जैसे सबका इरादा है
क्यूँ खींचते हो रिश्ते जब मन मानता नही
तोड़ दो ये धागा जब कोई बाँधता नही

कर लिया जब फ़ैसला तो अब सोचते हो क्यूँ?
निभा सकते नही हो जब तो जोड़ते हो क्यूँ?
सोचते जिसको घर हो, बन चुका है मकान वो
फिर रिश्तों का इसमें बाकी रखते हो समान क्यूँ?

अजीब कशमकश मैं ना तू अपनी ज़िंदगी गुज़ार
मर चुके रिश्ते जब , ना बचा तू ये मज़ार
यूँ ना रह ज़िंदा की ना कर पाए तू बंदगी
और फिर ढूँढे बहाने भी मुस्कुराने के ज़िंदगी

Wednesday, September 23, 2009

ग़रीब

मेरे दिल की तंगहाली देखो
दुआ में मेरी गाली देखो
हाड़ तोड़ मेहनत करता हूँ
फिर भी पेट है खाली देखो

कुदरत का मैं नही दुलारा
दाता ने भी मुझे दुत्त्कारा
बनी ग़रीबी धरम है देखो
कैसे फूटे करम है देखो

एक झोपड़ी एक चारपाई है
बिस्तर उस पर एक तिहाई है
तकता छेदों से बाट वो देखो
टंगा द्वार पे टाट वो देखो

रात कालिमा भी है उजली
घर में पानी ना है बिजली
प्रगती से हम किनारे देखो
प्रकृति के हम सहारे देखो

दो बच्चों की माँ संग है
उसका भी रंग बदरंग है
लक्ष्मी की मेरी कहानी देखो
बनी कहीं नौकरानी देखो

बड़े से कुछ हौंसला होता है
जब मेरे संग तसला ढोता है
लिपटी चिथड़ों में छोटी देखो
जीवित टुकड़ों में बेटी देखो

श्रम हमारा यूँ फल देता है
आधा भोजन भी कल देता है
हाथों में ये छाले देखो
मुख से छीने निवाले देखो

और देखो हमारी ये लाचारी
हमसे ही जुड़े हर महामारी
मनुष्यता पे शाप है देखो
निर्धानता ये पाप है देखो

जब ईश्वर कोई ग़रीब बनाता
भरपेट भोजन ही धेय बनाता
कुछ भी उसके करीब ना देखो
ग़रीब सिर्फ़ ग़रीब है देखो

Tuesday, September 15, 2009

मुझे इतनी दूर तक जाना है

मुझे इतनी दूर तक जाना है
जहाँ फिर इक दिलरुबा मिले
जाके ऐसी मज़िल को पाना है
मुझे इतनी दूर तक जाना है

जहाँ ना कोई रुसवाई हो
और हो ना कोई तन्हाई
जहाँ मिले ना बेवफा कोई
जहाँ मिले ना कोई हरजाई
जाके वहाँ साज़-ए-दिल बजना है
मुझे इतनी दूर तक जाना है.......

टूटे दिल का ना हो मंज़र
ज़ुबान कोई ना हो खंज़र
जहाँ हर शख्स प्यार हो
जहाँ हर कोई हमारा हो
जाके वहाँ हाल-ए-दिल सुनना है
मुझे इतनी दूर तक जाना है.....

तलाश जाकर जहाँ रुक जाए
और जिंदगी मुकाम इक पा जाए
जहाँ जीना ना चाहूं मैं
जहाँ मुझे मौत आ जाए
जाके वहाँ घर-ए-गुलशन बसाना है
मुझे इतनी दूर तक जाना है............

Monday, September 14, 2009

इंद्रधनुष

उभरा क्षितिज पर इंद्रधनुष कुछ ऐसे
जीवन मैं उभरा नया एक चेहरा हो जैसे
फैले फिर रंग घटा मैं भी कुछ ऐसे
सतरंगी ये उसका हि प्रतिमान हो जैसे

यूँ बूँदों की छम छम के बाद बना है
ज्यूँ अश्रुओं की कोख हि से जन्मा है
देखो प्रकृति ने दिया आकर निराकार को ऐसे
अजन्मे मेरे स्वप्न को देती वह आधार हो जैसे

हर दिशा मैं आशा का रंग यूँ भर गया
ज्यूँ जीवन के रंगो से मैं रंग गया
लाल,हरा,नीला,पीला और कहीं है मटमैला
सुख- दुख, आशा-निराशा सा सब तरफ है फैला

हटा धूँध को यूँ ये आगे आ गया
मुस्काता तेरा चेहरा ज्यूँ दुख पे छा गया
कंपित बिंब फिर धरती को चूमने लगा है ऐसे
कंपन प्यासे अधरों की माथे पे सजती है जैसे

छटा घटा की भी देखो अब यूँ छाई है
नव चेतना ज्यूँ मृत जीवन मैं आई है
नवजात शिशु सा आकाश मैं दिखता है ऐसे
मेरे आँगन मैं आ गया हो मेरा आभास ही जैसे

Saturday, August 29, 2009

अश्रु

देख पथिक की ये प्रबल पीड़ा
जाने क्यूँ अखियों से बहती है?
मिल जाती है चुपचाप माटी से
पर किसी से ये कुछ ना कहती है

देश देश ये दृग घुमाए
स्वपन सरस ये पाल ना पाए
पर खुसक मन जब कोई दिख जाए
जल जाने कहाँ से इनमें भर आए

देख विदेही की जर जर काया
अतुलित करुणा का भार उठाया
पर मन से जब ना गया निभाया
तब रोदन बन ये नयनो पर छाया

धरा भ्रष्ट है व्योम भ्रष्ट है
पेड़-पौध और वन-उपवन नष्ट है
जब दिखता ये त्रासद कष्ट है
तब अखियों से बहता स्पष्ट है
तब अखियों से बहता स्पष्ट है

Friday, August 28, 2009

यादों की झुरमूट से

तुम कहती किसे हंस हंस कर
मैं किसी से कुछ ना कहता
तुम रहती अपने साजन के घर
मैं यादों की झुरमूट मैं रहता

बदरी बरसे बीच समंदर
वहाँ ना बरसे जहाँ है बंज़र
तुम किस्मत को खूब लुभाती
मैं बदनसीबी के जमघट सहता
तुम रहती अपने साजन के घर
मैं यादों की झुरमूट मैं रहता

प्रेम एक पर मज़िल दो
मैं रोता तुम हँसती हो
तुम खिलखिलाती मधु बहाती
मैं अश्रु के पनघट बहता
तुम रहती अपने साजन के घर
मैं यादों की झुरमूट मैं रहता

कैसे अपने दिन रैन कटे
जब जीवन के सुख चैन मिटे
तुम सजाती नित सेज मिलन की
मैं विरह के मरघट सहता
तुम रहती अपने साजन के घर
मैं यादों की झुरमूट मैं रहता

Saturday, July 4, 2009

कब आई थी आख़िरी याद

दिवस कई बीत चुके
जब हुई थी तुमसे मुलाकात
लकिन अब याद नही आता है
कब आई थी आख़िरी याद

तुम भी शायद भूल चुकी हो
क्या की थी कभी हमने बात
अब बेचैन नही करती होगी
तुमको छोटी सी वो मुलाकात

चल रहे थे एक ही पथ पर
एक ही गंतव्य को जाने को
यूँ ही कर ली थी हमने बातें
अपना समय बिताने को

उसी दिवस से छवि तुम्हारी
मन मैं मेरे समाई थी
मेरे नयंनो को देख देख कर
जब तुम थोड़ा सकूचाई थी

एक मोड़ पर फिर हम दोनो
पल भर मैं ही दूर हुए
और पलवित हुए स्वपन वो
छण भर मैं ही चूर हुए

चल पड़े फिर अपनी दिशाएं
अपनी मंज़िल पाने को
कहाँ रहा फिर वक़्त किसे
किसी के समुख आने को

आज जब जिजीविषा से
मुझको थोड़ा सा विश्राम मिला
जीवन के झंझावतों से
याद करने का काम मिला

तब पलों की गठरी से
यादों को किया मैने आज़ाद
उन्ही यादों में कहीं छुपी थी
हमारी वो छोटी सी मुलाकात

क्या तुमको भी इस जीवन मैं
कभी इतना समय मिला होगा
जब तुमने अपनी यादों मैं
मुझ पथिक को चुना होगा

क्या तुमको मज़िल पे जाते जाते
आज भी आती होगी ये याद
फिर मिलने की मैने तुमसे
की थी एक छोटी सी फरियाद

मैं तो उस छण के नयन मिलन को
बर्ष कई करता रहा याद
लकिन अब याद नही आता है
कब आई थी आख़िरी याद

Friday, June 26, 2009

सुबोध

मार्ग मैं अवरोध बहुत हैं
चलने मैं कठिनाई है होती
यहाँ गतिरोध बहुत हैं


दुर्गम से दुर्गतम हो रहा
गहन मैं ये सघन हो रहा
डर डर कर पग धरते हैं
जाएँ ना प्रकाश माँगने
सब अपनी अपनी करते हैं
यहाँ विरोध बहुत हैं

दियासलाई जले एक हाथ
एक हाथ ले थाम मशाल
एक हाथ चिंगारी है फडके
एक तो सीधा चाँद पे भड़के
कैसे शशि भी दे लौ पूरी
यहाँ अनुरोध बहुत हैं

राही को ना फिकर हमराह की
सब एक दूजे पर पग धर रहे
चेतना कैसे विलुप्त हो चुकी
सब एक दूजे से हैं लड़ रहे
मंज़िल पर जाने की है जल्दी
यहाँ अबोध बहुत हैं


तिम गहन ये छंट सकता है
मार्ग सुगम फिर हो सकता है
कोई तो भानु उगा सकता
दिशा का भान करा सकता है
पथप्रदर्शक कोई तो होगा
यहाँ सुबोध बहुत हैं

Wednesday, June 24, 2009

कवि हाट

एक एक शब्द गूँथ के

माला कविता की लाया हूँ

ले लो, ले लो, भाव ये सुंदर

मैं इन्हें बेचने आया हूँ


ले लो जो तुम मैं बनूँ अभारी

इनका नही मोल कोई भारी

करुणा और प्रेम से ले लो

मैं कवि, नही कोई व्यापारी


ओ मानुष तू इसको ले ले

ये मनुजता बन जाएगी

भर देगी करुंण प्रेम से

ये सब वैर भाव मिटाएगी


ओ साथी तू इसको ले ले

ये हरपल साथ निभाएगी

हर शत्रु फिर मित्र बनेगा

ये इस तरह कंठ लगाएगी


ओ राही तू इसको ले ले

ये हर राह आसान बनाएगी

बनके तेरी मार्गदर्शिका

ये मज़िल तक पहुँचाएगी


ओ बालक तू इसको ले ले

ये खेल-खेल में सिखाएगी

जीवन में सही ग़लत क्या

ये इसका बोध कराएगी


वो श्रमिक तू इसको ले

ये श्रम मैं हाथ बटाएगी

मिल जाएगा फल श्रम का

ये यूँ आवाज़ उठाएगी


वो नेता तू इसको ले ले

ये तेरा भाषण बन जाएगी

कर सके जो कथन तू इसका

ये निश्चित जीत दिलाएगी


ओ प्रेमी तू इसको ले ले

ये तेरा दिल बहलाएगी

कोमल कोमल अर्थों से अपने

ये प्रेमिका को भी मनाएगी


ओ विरहन तू इसको ले ले

ये रात्रि भी कट जाएगी

किसी देश हो प्रियतम तेरा

ये उन तक संदेश पहुँचाएगी


बेच आऊंगा आज मैं सारे

यह कह कर इनको लाया हूँ

ले लो, ले लो, भाव ये सुंदर

मैं इन्हें बेचने आया हूँ


Friday, June 19, 2009

मान लो मेरी बात प्रिया

चुन लेना मेरी पलकों से
तुम खुद अपने ख्वाब प्रिया
अब मैं तो ना दे पाऊँगा
वो पहले सा अनुराग प्रिया

दिया था तुझको एक दिन
संभल सका तुमसे ना प्रिया
अब मान ले मेरी बात को
मत व्यर्थ कर प्रयास प्रिया

वो कोमल मन अब कटु हुआ
बचा नही कोई उल्लास प्रिया
प्रस्थितियों के इस भंवर का
हो चला वो ग्रास प्रिया

मद खोजे जैसे मादकता
क्यूँ खोजे मुझ मैं स्व-अक्श प्रिया
इस दुनियादारी की आँधी ने
बदला मेरा भी आकर प्रिया

कौन सुने अब फाग सावन के
जुब चुल्ले मैं ना आग प्रिया
अपने प्रेम की अग्नि को
दो दूसरा कोई आधार प्रिया

कैसे भेजूँ संदेश पाती मैं
जब छाती मैं सब दले दाल प्रिया
तेरे विरह के पल जो गूँथ ले
ढूँढ ले ऐसा कोई फनकार प्रिया

अब रहा मैं ना प्रेमी कोई
अब नही मुझे मैं वो बात प्रिया
मैं कहाँ रहा अब रसिक रूप का
बन गया मैं आदमजात प्रिया

कहना मेरा मान लो तुम
और मेरा करो परित्याग प्रिया
हम कभी नही मिल पाएँगे
कर लो सच ये स्वीकार प्रिया

चुन लेना मेरी पलकों से
तुम खुद अपने ख्वाब प्रिया
अब मैं तो ना दे पाऊँगा
वो पहले सा अनुराग प्रिया

Wednesday, June 17, 2009

और एक तुम

अक्सर साथ चली आती है
एक याद और एक तुम
अक्सर हम पर मुस्काती है
एक स्नेहा और एक तुम

सूरज ढलने तक वो बातें
तारों की छाँव मैं मुलाक़ातें
अक्सर चाँद के संग ढलती है
एक पूर्णिमा और एक तुम

सपनो के जहाँ छूटे हैं
आशाओं के मकान टूटे हैं
अक्सर खंडहरों मैं घूमती है
एक बेबसी और एक तुम

कैसे मनके की लड़ियों से
अश्रु ढुलक ढुलक आते हैं
अक्सर इन में छुपी होती है
एक वेदना और एक तुम

तुम जब से ना रहे हमारे
बदले तब से सब नज़ारे
अक्सर नज़रों को चुभती है
एक बेचैनी और एक तुम

कल जब हम भी ना रहेंगे
तब शायद ये सब समझेंगे
अक्सर मरने के बाद मिलती है
एक खुशी ओर एक तुम

Tuesday, May 26, 2009

मैं तुझ संग मोहब्बत करने चला था

पंख सपनो को अपने देने चला था
जीवन को खुशियों से भरने चला था
मुक़्दर को अपने पलटने चला था
मैं तुझ संग मोहब्बत करने चला था

मोहब्बत की हमारी कीमत ही क्या थी
हँसी की हमारी ज़रूरत कहाँ थी
लुटाने जाने मैं क्या क्या चला था
मैं तुझ संग मोहब्बत करने चला था

वही चोट बाहर वही ज़ख़्म अंदर
तेरी वफ़ा का अजब है ये मंज़र
ज़ख़्मों को मैं तो भरने चला था
मैं तुझ संग मोहब्बत करने चला था

रुसवाइयों का ये आलम गजब है
तन्हाइयों का बस मोहब्बत सबब है
गुस्ताख़ी कैसे मैं करने चला था
मैं तुझ संग मोहब्बत करने चला था

Saturday, May 16, 2009

बंधन

बंद कमरे की दीवारों पे
क्या तो मैं लिख पाऊँगा
आडी तिरछी लकीरों को
खींच कर खुश हो जाऊँगा

कौन खोले ये दरवाजा
जो बाहर मुझे दिखाई दे
झाँक कर कोने- कोने मैं
बस ये धूल ही तो पाऊँगा

किस कदर है ये बेबसी
जो खोलूं खुद किवाड़ ना
बैठे-बैठे, सोचकर के मैं
ये ज़िंदगी ही तो बिताऊँगा

झाँकना जो चाहूं मैं
परदे खिड़कियों पर हैं लगे
पालूँ ख्वाहिशें भी तो कैसे
बंद हर राह मैं जो पाऊँगा

कौन जाने किस जुर्म में
बंद दीवारों में, मैं हो गया
हवा में लटकाकर के लात
कुछ देर ही तो चल पाऊँगा

बेजान सी अब ये चीज़ें
धिक्कारती हैं मुझको ये
निकलना है तो निकल ले अब
वरना घुटन ही से मर जाऊँगा

Friday, May 8, 2009

किनारे-किनारे

मिली मंज़िल किसी को
तो कोई तोड़ लाया है तारे
सब डूबे तैरे मौज से लेकिन
चलता रहा मैं किनारे -किनारे

ख्यालों की कलियाँ खिलती कहाँ
निरालों को दुनिया मिलती कहाँ
हवा के महल आरज़ू के सहारे
गिरे तो टूटे, कुछ थे यूँ नज़ारे
सब डूबे तैरे......

बनते तो तब जब हम बिगड़ते
पाते ही कुछ जब हम झगड़ते
बस करते रहे दूर ही से इशारे
जीते ना कुछ ना कुछ हैं हारे
सब डूबे तैरे...

हॅश्र मेरा होना क्या था
मिला क्या था, खोना क्या था
फ़ुर्सत की घड़ियों मैं गिनता था तारे
आया था यूँ ही और यूँ ही गया रे
सब डूबे तैरे ........

Tuesday, May 5, 2009

मन

अंधेरे से निकलो
उजाले मैं आओ
मनको ना अपने
तुम इतना भटकाओ

चाहो जिसे कब
तुम वो पाओ
बेहतर इसे अब
तुम ही समझाओ

सुनोगे जो इसकी
तो पछताना पड़ेगा
बिना नाम दुनिया
से जाना पड़ेगा

ये नासमझ जैसे
बच्चे जैसा अड़ा है
ये माटी का
एक कच्चा घड़ा है

चाहो तुम जैसे
इसको बनाओ
बैठा दो फलक पे
या ज़मीन से मिलाओ

उंगली पकड़ कर
इसे चलना सिख़ाओ
हिसाबों की दुनिया का
इसे पहाड़ा पढ़ाओ

जो रखोगे पीछे
तब आगे बढ़ेगा
अकारण ही वरना
ये हर दर अड़ेगा

चमकेगा एक दिन
ये इस जग मैं
डालोगे बेड़ियाँ जो
इसके पग मैं

ये सच है
ये सच्चा है
थोड़ा बुरा है
पर ज़्यादा अच्छा है

ग्यान गीता से
इसको अवगत कराओ
मर्यादा की शिक्षा
इसको दिलाओ

सयम की समता
तुम इसको बताओ
धरम से विवेक
तुम इसका जगाओ

दुनिया मैं धन प्रेम
सबसे बड़ा हैं
सहारे बिना इसके
ना कोई खड़ा है

पर प्रेम भी
ये अकेला बड़ा है
सहारे अगर ना
करुणा के खड़ा है

बोल दो प्रेम के
इसको भी बताओ
करुणा की इसको
तुम मूर्त बनाओ

अभिमन्यु नही इसको
अर्जुन है बनना
हर चकवयूह से है
इसको निकलना

इसको तुम ऐसा
एक युगांतर बनाओ
कलयुग को बदलो
फिर सतयुग बनाओ

Monday, April 27, 2009

एको

एको बोली, एको वेश
एको रंगा रंगा अनेक

एको गाँव, एको देश
एको संग चले अनेक

एको स्तुति ,एको गान
एको रूपा लगे भगवान

एको धर्म, एको ग्यान
एको बनायो कर्म महान

एको नर, एको नार
एको सम रहे व्यवाहर

एको दरिद्र ,एको दीन
एको रहियो हृदय मलिन

एको याचक, एको दाता
एको रखो भाग्या विधाता

एको सत, एको वाच एको
निकले मुख से वाक्

एको जीवन एको मृत्यु
एको राख्यो अपना शत्रु

ढलती जिन्दगी

कदम दर कदम ज़िंदगी जा रही है
हर तरफ़ बिखरी हैं राहें
मंज़िल नही नज़र आ रही है
कदम दर कदम ज़िंदगी जा रही है

यादों के झरोखों से वक़्त गुज़रता है
मुठ्ठीमें रेत की तरह फिसलता है
बहाने झूठी खुशियों के बुला रही है
कदम दर कदम ज़िंदगी जा रही है

कोई साथ दे इसका तो कैसे
ये महल हो एक सपनो का जैसे
हर मोड़ मंज़िल का गीत गा रही है
कदम दर कदम ज़िंदगी जा रही है

यूँ तो कर ले भरोसा तू इसका
पर ये ही जाने ये दे साथ किसका
हमको तो यूँ ही बहलाए जा रही है
बस चन्द यादों से सहलाए जा रही है
करता हूँ यकीन ओर ये इतरा रही है
कदम दर कदम ज़िंदगी जा रही है

Thursday, April 9, 2009

माँगना फ़ितरत है हमारी

बेला जो मृत्यु की है उसकी
घड़ी वो याचना की है हमारी
माँग लेंगे टूटते तारे से भी
माँगना क्यूँ की फ़ितरत है हमारी

नही सोचेंगे पीड़ा उसकी
जो बिछूड़ रहा है अपनो से
नही समझेंगे दुख उसका
जो जुदा हो रहा सपनो से

वो जो चमकता था नभ मैं
दीप्तिमान था जो सब मैं
क्या फिर वो चमक पाएगा?
अपनी लौ मैं लौट आएगा?

पर हमको क्या लेना उस से
आलोकित हम थे जिसके जस से
स्वार्थ अपना सिध करेंगे
खुदको हम समृद्ध करेंगे

उसके लिए हो चाहे ये बेबसी
पर मुझको मिल जाए मेरी प्रियसि
उसपर लगे चाहें कितने भी घात
पर हमपर ना कभी हो उल्का पात

हमको क्या है उसके दुख से
हम रहें खुश अपने सुख से
हम निरंतर मनन करेंगे
माँगने का प्रयत्न करेंगे

कर देना पूरी दुआ हमारी
जान भले ही जाए तुम्हारी
माँग लेंगे टूटते तारे से भी
माँगना क्यूँ की फ़ितरत है हमारी

Saturday, April 4, 2009

नदिया

ओ, धरा की रक्त वाहिनी
रंग स्वेत और विभा सुहावनी
अगणित जीवों की जीवनदयनी
अद्भुत भावों की कामायनी
कल कल निस्चल मचाती शोर
नदिया, तुम बहती चली किस ओर

रूप अनेक हैं नाम अनेक
विष्मित रह जाते सब तुमको देख
असंख्य सभ्यताओं की तुम आधार
पार जाएँ पर पाएँ ना पार
बनाती जाती नित-नित नये छोर
नदिया, तुम बहती चली किस ओर

वन-उपवन और खेत खलिहान
बिन तेरे ना बने महान
खड़े आलय कितने तेरे सहारे
बीच पाहन तुझमें ज्यूँ तारे
पवन सम्रिधि फैलती सब ओर
नदिया, तुम बहती चली किस ओर

जब विरहन जोती बाट किनारे
तब लहरें तेरी पिया पुकारे
तेरे तट हैं दृश्य मनोहर
डूबे तुझ मैं जब दिनकर
तुम सरिता हो या कोई चितचोर
नदिया, तुम बहती चली किस ओर

देखो कभी ना तोड़ना किनारा
धैर्य का ना छोड़ना सहारा
मिटा देता ओर मिट जाता है
जो लालच कभी बढ़ जाता है
तुम देती शिक्षा करती भावविभोर
नदिया , तुम बहती चली किस ओर

Saturday, March 28, 2009

इस पार

मधुर वीणा के झंकृत्त स्वर से
तेरे मधुर मधुर उदगार
किन आशाओं संग ले आई हो
तुम प्रियतम हमको इस पार

अंजान डगर, अंजान नगर
अंजाना सा है ये संसार
किन आशाओं संग ले आई हो
तुम प्रियतम हमको इस पार

नेत्र सजल है सपनो का बल है
ओर दुखों का है संहार
किन आशाओं संग ले आई हो
तुम प्रियतम हमको इस पार

मैं अचम्भित बोल रहा हूँ
संग पवन के डोल रहा हूँ
पग-तल धरा नही दिखती है
उपर नभ का नही विस्तार
किन आशाओं संग ले आई हो
तुम प्रियतम हमको इस पार

प्रेम यहाँ बस एक कर्म है
ओर करुणा ही लगे धर्म है
लगे देश ना लगे परिवार
किन आशाओं संग ले आई हो
तुम प्रियतम हमको इस पार

मैं तो बस संग चली हूँ
तेरे रागों मैं हि ढली हूँ
तुम तो सदा यहीं रहते थे
अपने गीतों मैं कहते थे
ला दो मुझको कोई ऐसा उपहार

यहीं रहोगे गीत लिखोगे
अब नही करोगे तुम इनकार
इसआशा संग ले आई हूँ
मैं प्रियतम तुमको इस पार॥
मैं प्रियतम तुमको इस पार॥

Tuesday, March 24, 2009

परीक्षण

आओ,मिलकर एक खेल खेलें
ये बच्चा हंस रहा है चलो रुलाते हैं!

पहला, काटो चिकोटी,
हैं! ये क्या? रोया नही? शायद काया है
मोटी दूसरा,: ये लो काँटा, चुभो डालो
काँटे से भेदी गई उस कोमल की काया
हल्का सा चिहुका,नयन तरेरे सबको देखा
पुनः रेत का घर बनाने लगा

आश्चर्य !! दर्द नही हुआ होगा क्या?
सभी एक दूजे को तकने लगे
बड़ा ढीढ़ है,रोता नही बकने लगे

क्रूरता बढ़ गई नर पिशाच बन गया
तीसरा, तलवार उठा लाया
चलो काट कर देखें इसका सीना
कैसे सीखा दुख में इसने जीना?

सभी ने एक दूजे को देखा
हृदय से मिट गयी हय की रेखा
और बच्चे को देखो,मधुर मुस्कान चेहरे पर लिए,
अभी भी घर बनाने में मस्त-व्यस्त है

खच्चाक !!!!!! हाय काट डाला उस कोमल को
प्रकृति मुख देखती रही
उपर,ईश्वर ने थोड़ा झूक कर देखा
बस एक काल को दया आई
उस नन्हे को उठा ले गया अपनी गोद में

नीचे परीक्षण जारी था
पहला, कलेजा तो काला ही है
दूसरा, रुधिर भी लाल है
तीसरा, काटने से साँस भी थम गई
फिर रोया क्यूँ नही भाई ?
हा भाई! हंस पड़ा नन्हे का दिल खिलखिलाकर

सन्नाटा!!!....सभी अवाक....!!!
एक ने हिम्मत दिखलाई पूछा तुझे क्यूँ हँसी आई
बच्चा , मुझे इतनी निर्ममता से काट डाला
फिर भी कहता है भाई,
अरे,अरे तुझ से तो अच्छा करे कर्म कसाई ,
कम से कम वो तो ना कहे बकरे को भाई है
पूछता है क्यूं हँसी आई?

पर तू रोता क्यूँ नही था?
ये मुझ से पहले पूछा होता
काटने से पहले चेहरा नही, मेरा मन पढ़ा होता
बतलाता क्यूँ नही रोया दर्द भी हुआ ,चुभन भी हुई
पर रो नही सकता था जानते हो किसलिए
मेरा घर मेरे आंशुओं में ना बह जाए इसलिए

निशब्दता!!! सभी मुँह तकने लगे
ये तो सोचा नही था, बकने लगे
हमने जिसको इसका खेल समझ लिया था
उसीको इसने जीवन समर्पित किया था

परंतु अब क्या किया जाए
पश्चाताप ...पर कैसे?
चलो यहाँ एक मकबरा बनायें और उस पर दो फूल चढ़ायें

सब के चेहरे पर शांति थी...........

Saturday, February 28, 2009

यादें

लो फ़िर मैं आज इधर से गुजरा
फ़िर वही राह , वही घर, वही विराना
दूर दूर तक रास्तों पर बिछी धूल
और अक्श क़दमों के उन पर उभरे हुए
जैसे एक सदी गुजरी हो हमको मिले हुए
तू बदली , मैं बदला , बदला कसा हर फिकरा
बरबस तेरी याद आई
जब मैं इधर से गुजरा ।

Friday, February 27, 2009

एक प्यारी सी मुस्कान के लिए

अचानक एक दिन यूँ मिली वो
जैसे कहीं जूही की कली खिली हो

छोटी सी पर सुंदर सी ऐसी लगी वो
जैसे सुंदर गुलाब की पंखुडी हो।

बन कर बदरी ऐसे छाई वो
सहरा में जीवन जैसे लाई हो.

सजती है होंठों पर मेरे हरदम
बन कर मुस्कान ऐसे छाई वो।

Thursday, February 26, 2009

तुम जब गई........

तुम जब गई तो
इक हूक सी उठी दिल के अंदर
कतरा सा बहा आखों से
लगा जैसे भर गया समन्दर

कुछ आवाज़ सी आई
कहीं दूर गहराई से
डर लगा फ़िर हमको
अपनी ही परछाई से

भर गया मन
कुछ अनकहे से बोलों से
और मिट गई फ़िर
हंसी भी होंठों से

नींद ने जाने क्यूँ
दामन सपनों का छोड़ दिया
रास्तों ने भी जैसे
मंजिल से रिश्ता तोड़ लिया

रूह को मौत आई हो
जैसे जिस्म के अंदर
कतरा सा बहा आखों से
लगा जैसे भर गया समन्दर

Tuesday, February 17, 2009

अगर मालूम होता ......

अगर मालूम होता बरसात आखरी है हमारी
तो भीगते रहते कुछ देर और यूँ ही हम तुम
और जिस तरह रहती है हाथों में लकीरें
रहता पकड़े हथेली बरसात में तुम्हारी
अगर मालूम होता बरसात आखरी है हमारी

सजा लेता जेहन में यादें कुछ इस तरह
रूह बसती है जिस्मों में जिस तरह
जब भी चाहता सुनता यादें तुम्हारी
गुमान होता जो आखरी बातें हैं हमारी
अगर मालूम होता बरसात आखरी हैं हमारी

बड़ी मुश्किलों से पाया था तुझे
क्या मालूम था दे जाएगा दगा मुझे
सोचता रहता था तुम तो अपना हो
कभी न टूटेगा जो ऐसा सपना हो
मिलती नही क्या करुँ फ़िर चाहत तुम्हारी
अगर मालूम होता बरसात आखरी है हमारी

आखों में तेरी पत्ता था ख़ुद को लुटा कर
मुस्कान पे मरता था तेरी कुछ में इस कदर
दिखाने बाकी थे सपने अभी और कई सारे
पर हो न सके किस्मत के कुछ पल और हमारे
जगता कुछ देर और आंखों को तुम्हारी
अगर मालूम होता बरसात आखरी है हमारी

अगर मालूम होता बरसात आखरी है हमारी.......,

Saturday, February 7, 2009

मेरा वजूद

दरमियान हो दूरियां कितनी
नजदीकियों के सपने बुन ले
नहीं भरोसा तो न सही
वजूद पे मेरे यकीं कर ले

नज़रों में बस है वीरानी
जो चाहे तू तस्वीर भर ले
नहीं सिमट पाएंगी तेरी खुशियाँ
दिल पे मेरे यकीं कर ले

लाख छुपा इसे सीने मैं
चाहे गिरह से बाँध ले
फिसल जायेंगी हसरतें फ़िर भी
मुक़दर पे मेरे यकीं कर ले

कह न पाया जो कभी
बातों को मेरी तू समझ ले
नहीं भरोसा तो न सही
वजूद पे मेरे यकीं कर ले

Friday, February 6, 2009

वैसे, मैं नही हमराह तेरा

नाम नही ये भूलाना मेरा
वैसे, मैं नही हमराह तेरा

रास्ते पर जो धूल उड़ती है
खा के ठोकर तेरे पाँव से
उभर कर फ़िर तस्वीर बनती है
ले कर रंग धुप-छावों से
वो धुल हुं मैं ,और बिखरा हूँ यूँ ही
इन राहों मैं तेरे वास्ते
अक्श नही ये मिटाना मेरा
वैसे,मैं नही हमराह तेरा।

एहसास जो आते हैं बनके रुलाई
खारे पानी में भिगो लाये हैं तन्हाई
और देख ये जो चलती है पुरवाई
छूने से तुझे जब किसी की याद आई
वो याद हूँ में, और रहता हूँ यूँ ही
इन हवाओं मैं तेरे वास्ते
मिलना, नही ये अनजान मेरा
वैसे, मैं नही हमराह तेरा

चलना जितनी दूर तुम चल पाओगे
रुके गर मिले, जब थक जाओगे
मंजिल पे पहुँचने से जब घबराओगे
सहारा कोई बाहों का तुम तब पाओगे
वो सहारा हूँ में,और फैलाके बाहें यूँ ही
इन रास्तों मैं खड़ा हूँ तेरे वास्ते

सहारा नही ये ठुकराना मेरा
वैसे,मैं नही हमराह तेरा.

Friday, January 30, 2009

शब्द हमारे

ये बेचारे शब्द हमारे
कितने तन्हा कितने सारे
बने रहे अर्थों में लकिन
भावः से हारे भावों से हारे

ह्रदय से निकले थे ये बोल
पर बना ना पाए कोई मोल
फिरते दर दर बन बंजारे
ये बेचारे शब्द हमारे
कितने तन्हा कितने सारे .......

भावुकता में जब बह गए
जो न कहना था सब कह गए
करुणा के लिए अब चित्कारे
ये बेचारे शब्द हमारे
कितने तन्हा कितने सारे ...........

कैसे बे-भाव का गरल मिटाऊं
कैसे इनको सरल बनाऊँ
कब चमकेंगे ये बनकर तारे
ये बेचारे शब्द हमारे
कितने तन्हा कितने सारे.......

Tuesday, January 27, 2009

ढलती जिन्दगी

कदम दर कदम जिन्दगी जा रही है
हर तरफ़ बिखरी हैं राहें
मंजिल नही नज़र आ रही है
कदम दर कदम जिन्दगी जा रही है

यादों के झरोखों से वक्त गुजरता है
मुठी मैं रेत की तरह फिसलता है
बहाने झूठी खुशिओं के बुला रही है
कदम दर कदम जिन्दगी जा रही है

कोई साथ दे इसका तो कैसे
ये महल हो एक सपनो का जैसे
हर राह मंजिल का गीत गा रही है
कदम दर कदम जिन्दगी जा रही है

यूँ तो कर ले भरोसा तू इसका
पर ये ही जाने ये दे साथ किसका
करता हूँ यकीं और ये इतरा रही है
कदम दर कदम जिन्दगी जा रही है

Wednesday, January 14, 2009

सृजन

ह्रदय पर कुछ बोझ है गहरा
जैसे पुंज पर तम् का पहरा
धुंधला धुंधला है हर चेहरा
कहीं नही है रूप सुनहरा

क्यूँ बेचैनी छाई हुई है
क्यूँ नज़र अकुलाई हुई है
क्यूँ नही दीखता है उजियाला
क्यूँ नही मिटता है ये छाला

हर तरफ़ एक आग लगी है
हर तरफ़ एक राख बिछी है
निराशा का हर तरफ़ है पहरा
दुःख का बदल बहुत है गहरा

सृजन का निशान नही है
मानव की पहचान नही है
अब कौन दिशा को मोड़ेगा
कौन व्यूह को तोडेगा

प्रश्न दर प्रश्न खड़े हैं
उत्तर इनके नही बड़े हैं
जो रवि सा आलोक करेगा
संताप सब का वही हारेगा

कवि मानवता की आस रखेगा
फ़िर से वो इतिहास लिखेगा
जाओ उसको ढूंढ कर लाओ
फ़िर उस से ये काम कराओ

विस्वाश की एक कलम बनाओ
प्रेम रंग में उसे डुबाओ
फ़िर कलम को खूब चलाओ
मीत फ़िर सुंदर गीत बनाओ