Saturday, April 4, 2009

नदिया

ओ, धरा की रक्त वाहिनी
रंग स्वेत और विभा सुहावनी
अगणित जीवों की जीवनदयनी
अद्भुत भावों की कामायनी
कल कल निस्चल मचाती शोर
नदिया, तुम बहती चली किस ओर

रूप अनेक हैं नाम अनेक
विष्मित रह जाते सब तुमको देख
असंख्य सभ्यताओं की तुम आधार
पार जाएँ पर पाएँ ना पार
बनाती जाती नित-नित नये छोर
नदिया, तुम बहती चली किस ओर

वन-उपवन और खेत खलिहान
बिन तेरे ना बने महान
खड़े आलय कितने तेरे सहारे
बीच पाहन तुझमें ज्यूँ तारे
पवन सम्रिधि फैलती सब ओर
नदिया, तुम बहती चली किस ओर

जब विरहन जोती बाट किनारे
तब लहरें तेरी पिया पुकारे
तेरे तट हैं दृश्य मनोहर
डूबे तुझ मैं जब दिनकर
तुम सरिता हो या कोई चितचोर
नदिया, तुम बहती चली किस ओर

देखो कभी ना तोड़ना किनारा
धैर्य का ना छोड़ना सहारा
मिटा देता ओर मिट जाता है
जो लालच कभी बढ़ जाता है
तुम देती शिक्षा करती भावविभोर
नदिया , तुम बहती चली किस ओर

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