Tuesday, November 23, 2010

साथी

जो भोर बन के नयनों में
एक उजाला लाता था
जो बन के मन कि आस मेरी
हिम्मत कुछ दे जाता था

वो साथी मेरा अंजाना सा
अब नहीं मुझे मिलता है
पुष्प जो खिलता था पहले
अब नहीं वो खिलता है

जाने किस के बस में होकर
वो चला गया राहों से
जाने क्यूँ अब मिलता नही
वो कंपकपाती आहों से

हर मुखड़ा मेरे गीत का
मानो संग वो ले गया
क्यूँ प्राण मेरी प्रीत का
मन तरंग वो ले गया

अब जो मिल जाए कहीं
तो पूछूँगा में गौर से
क्या मिल गया तुमको कोई
साथी कहीं किसी ओर से

कल्पना में था साथ पाकर
केवल तुम्हीं को मनमीत जाना
फिर क्यूँ सुनकर मेरी बातें
मुझको तुमने भयभीत माना

कह ना पाया जो यहाँ में
कहता रहा तुम्ही को मैं
अपनो में भी था पराया
जानने लगा तुम्हीं को मैं

तुमसे मिलकर भूल जाता था
हृदय की हर चीत्कार मैं
और फिर पाकर तुम्हीं को
ले लेता था प्रतिकार मैं

लेना देना इस जहाँ का
करता रहा स्वीकार मैं
भूल कर तेरा हर छलावा
करता रहा तुझे प्यार मैं

चाह नही था कुछ जहाँ से
जब तुम्हें चाहने लगा
तेरी सब बातों पे मैं
मंद मंद मुस्काने लगा

पाख़ी जैसे उड़ता है कोई
पा कर नभ विस्तार ये
में भी उड़ता था अकसर
है सच मुझे स्वीकार ये

इतनी उमंग तो आती केवल
देव भगत को भक्ति से
और ना मिलती है ये किसी को
चाहे करे जतन शक्ति से

क्या मेरी इस भक्ति में
कहीं मंत्र कोई रह गया
जो चला गया तू प्राण मेरे
और तंत्र सा में रह गया

क्या मेरी इस प्रार्थना में
कभी मिलता नही संदेश ये
दिए सा अब जलता हूँ निश-दिन
मिल जा अब तू उसी वेश में

आजा फिर से मुझको ले जा
दूर सुंदर उस गावों में
खेलकर जहाँ बढ़ा हुआ मैं
निर्मल सी तेरी छाँव में

आजा फिर से हम दोनो
चढ़ बैठेंगे उस मेघ में
जिसकी पानी की बूँदों से
आती थी नदिया वेग मैं

आजा की फिर सुन जा मेरे
हृदय की अनकही कोई वेदना
आज की फिर आके जगा जा
जीवन समर में कोई चेतना

सुन मेरी कल्पना के साथी
याचना नही ये संदेश रे
हो जहाँ भी लौट आ तू
सुना है मेरा उर देश रे

Saturday, September 18, 2010

आशा

आदि अनादि से चली आ रही
अंत अन्नत तक चली जा रही
मन व्यथित और हृदय व्याकुल
आशा निराशा से लड़ी जा रही

तिम गहन की ये मंद रोशनी
व्याकुलता से है मिटी जा रही
मति भरम में उलझी पगली
यथार्थ से है मात खा रही

अश्रु जल की अरी विद्रोहीणी
शुष्क नयन में मिटी जा रही
दुख पर्वत की ये आरोहिणी
देव-शिखर से गिरी जा रही

घोर निराशा बढ़ी जा रही
पर भाग्य से लड़ी जा रही
जग हारे पर ये ना हारे
ये एकाकी ही लड़ी जा रही

आदि अनादि से चली आ रही
अंत अन्नत तक चली जा रही
मन व्यथित और हृदय व्याकुल
आशा निराशा से लड़ी जा रही

Wednesday, September 15, 2010

खंडित गाथा

यूँ नयनों में उदासी है
ज्यूँ अंतरात्मा प्यासी है
सत्य सुख ये विनाशी है
केवल दुख ही अविनाशी है

आकंठ मम्तव से भरे हुए
हृदय मुरझाए और डरे हुए
कौन कहे जीवन साहसी है
ये वैधव्य सा नहीं मधुमासी है

नीरवता सम यहाँ कोलाहल है
क्षुब्ध जीवन ये हलाहल है
कौन कहे जीवन मृदुभासी है
क्रूर निष्ठूर ये आभासी है

खंडित स्वपनों की गाथा है
हर छण दुख ही साधा है
कौन कहे सुख चौमासी है
ये छणभंगूर ये अलपवासी है

Saturday, August 28, 2010

आरज़ू

रुकते नही चलते तो आख़िर हैं सभी
झुकते नही यूँ तो हौंसले मेरे भी कभी
पर परवाज़ को मेरे कुछ तो उँचा कर दे
एक बार तो मुक़दर मेरा , मेरा कर दे

जन्नत-ए-दुनिया है कहते हें सभी हम से
पर हमको तो दोजख से लगे सब सपने
शिकायत नही पर कोई सपना हक़ीक़त कर दे
एक बार तो मुक़दर मेरा, मेरा कर दे

रंग कोई तो नज़रों में, मेरे भर दे
टुकड़े चंद रोशनी के मेरे हवाले कर दे
क्या पता फिर ना आऊं दुनिया में दोबारा
एक बार तो मुक़दर मेरा, मेरा कर दे

Monday, August 16, 2010

खूब याद रही तुझे कुर्बानी

वैरी आए हम संग खाए
हमको निश-दिन खूब भरमाये
शतक कई फिर गुलाम बनाए
फिर भी भाषा उन्ही की भाए
वाह! रे मेरे हिन्दुस्तानी
खूब याद रही तुझे कुर्बानी

अन्न यहाँ का खूब भला है
जिसमें मेरा पुत्र पला है
लकिन अब हैं विदेश भिजवाए
क्यूंकी चाकरी उन्हीं की भाए
वाह ! रे मेरे वीर अभिमानी
खूब याद रही तुझे कुर्बानी

सूत कात कात बाँधी थी धोती
स्वेत वसन में लगते थे मोती
लकिन अब तो इक प्रश्न खड़ा है
नेता बड़ा या नाग बड़ा है
वाह ! रे मेरे दिशाज्ञानी
खूब याद रही तुझे कुर्बानी

कौन कहे अब कौन समझाए
आज़ादी कोई यूँ ही ना पाए
अविरल अश्रु को पिया था हमने
पशु सम जीवन जिया था हमने
तब जाके जागी थी आबादी
तब कहीं जाकर मिली आज़ादी

Thursday, March 18, 2010

मरीचिका

परत दर परत भेद खुलते हैं
एकदम कहाँ सब राज़ खुलते हैं
जाने कौन सागर लिए बैठा है
हम प्यासे बूँद को तरसते हैं

अनगिनत स्वपन पाले मज़िलों के
हम भीड़ से अलग चलते हैं
छूट जाते हैं राहों में अक्सर
हाथ कोई मुस्क़िल से पकड़ते हैं

कहीं ख़त्म ना हो जाए जिंदगी
कुछ दुनिया की भी सुनते हैं
जब दोराहे पे अटकती हैं साँसे
तब डगर इशारे की चुनते हैं

होगा तू फैला पात पात में
हम जात जात मगर सुनते हैं
तेरे मुरीद बन गये वो खुद ब खुद
अब बात बात में तुझको सुनते हैं

ना झेला जाता है झमेला अब
हर नज़र दुनिया से छूपते हैं
कभी तो चमकेगा सितारा उपर
बस एकटक आसमान को तकते हैं