Saturday, August 29, 2009

अश्रु

देख पथिक की ये प्रबल पीड़ा
जाने क्यूँ अखियों से बहती है?
मिल जाती है चुपचाप माटी से
पर किसी से ये कुछ ना कहती है

देश देश ये दृग घुमाए
स्वपन सरस ये पाल ना पाए
पर खुसक मन जब कोई दिख जाए
जल जाने कहाँ से इनमें भर आए

देख विदेही की जर जर काया
अतुलित करुणा का भार उठाया
पर मन से जब ना गया निभाया
तब रोदन बन ये नयनो पर छाया

धरा भ्रष्ट है व्योम भ्रष्ट है
पेड़-पौध और वन-उपवन नष्ट है
जब दिखता ये त्रासद कष्ट है
तब अखियों से बहता स्पष्ट है
तब अखियों से बहता स्पष्ट है

Friday, August 28, 2009

यादों की झुरमूट से

तुम कहती किसे हंस हंस कर
मैं किसी से कुछ ना कहता
तुम रहती अपने साजन के घर
मैं यादों की झुरमूट मैं रहता

बदरी बरसे बीच समंदर
वहाँ ना बरसे जहाँ है बंज़र
तुम किस्मत को खूब लुभाती
मैं बदनसीबी के जमघट सहता
तुम रहती अपने साजन के घर
मैं यादों की झुरमूट मैं रहता

प्रेम एक पर मज़िल दो
मैं रोता तुम हँसती हो
तुम खिलखिलाती मधु बहाती
मैं अश्रु के पनघट बहता
तुम रहती अपने साजन के घर
मैं यादों की झुरमूट मैं रहता

कैसे अपने दिन रैन कटे
जब जीवन के सुख चैन मिटे
तुम सजाती नित सेज मिलन की
मैं विरह के मरघट सहता
तुम रहती अपने साजन के घर
मैं यादों की झुरमूट मैं रहता