देख पथिक की ये प्रबल पीड़ा
जाने क्यूँ अखियों से बहती है?
मिल जाती है चुपचाप माटी से
पर किसी से ये कुछ ना कहती है
देश देश ये दृग घुमाए
स्वपन सरस ये पाल ना पाए
पर खुसक मन जब कोई दिख जाए
जल जाने कहाँ से इनमें भर आए
देख विदेही की जर जर काया
अतुलित करुणा का भार उठाया
पर मन से जब ना गया निभाया
तब रोदन बन ये नयनो पर छाया
धरा भ्रष्ट है व्योम भ्रष्ट है
पेड़-पौध और वन-उपवन नष्ट है
जब दिखता ये त्रासद कष्ट है
तब अखियों से बहता स्पष्ट है
तब अखियों से बहता स्पष्ट है
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