Thursday, November 26, 2009

निर्दोष

उनिन्दी आखों को मसलता
मैं स्वपन अपने खोजता हूँ
भूल बैठा था जिसे
वो अक्ष अपना खोजता हूँ

तू तो मेरा था ही कब
जो आज तुझ को कुछ कहूँ
जीवन के सब त्रास मेरे
तुझको क्या मैं रहूं ना रहूं

कर नयोच्छवर तुझ पे सबकुछ
खाली मन ने पाया क्या
होकर रहा बस एक तेरा
कभी दूसरे को अपनाया क्या

तुम तो ठहरी रूपमया
भटकाना मुझको फ़ितरत मैं था
मुझ पे था चाहत का साया
भटक जाना किस्मत मैं था

दोष मेरा बस यही है
निर्दोष मैं बन कर रहा
मदहोश तेरे आगोश में
बेहोश मैं बन कर रहा

अब जो आया होश में तो
मैं सत्य अपना जनता हूँ
भूल चुका था मैं जिसे
वो अक्ष अपना पहचानता हूँ