Thursday, March 18, 2010

मरीचिका

परत दर परत भेद खुलते हैं
एकदम कहाँ सब राज़ खुलते हैं
जाने कौन सागर लिए बैठा है
हम प्यासे बूँद को तरसते हैं

अनगिनत स्वपन पाले मज़िलों के
हम भीड़ से अलग चलते हैं
छूट जाते हैं राहों में अक्सर
हाथ कोई मुस्क़िल से पकड़ते हैं

कहीं ख़त्म ना हो जाए जिंदगी
कुछ दुनिया की भी सुनते हैं
जब दोराहे पे अटकती हैं साँसे
तब डगर इशारे की चुनते हैं

होगा तू फैला पात पात में
हम जात जात मगर सुनते हैं
तेरे मुरीद बन गये वो खुद ब खुद
अब बात बात में तुझको सुनते हैं

ना झेला जाता है झमेला अब
हर नज़र दुनिया से छूपते हैं
कभी तो चमकेगा सितारा उपर
बस एकटक आसमान को तकते हैं