Saturday, August 28, 2010

आरज़ू

रुकते नही चलते तो आख़िर हैं सभी
झुकते नही यूँ तो हौंसले मेरे भी कभी
पर परवाज़ को मेरे कुछ तो उँचा कर दे
एक बार तो मुक़दर मेरा , मेरा कर दे

जन्नत-ए-दुनिया है कहते हें सभी हम से
पर हमको तो दोजख से लगे सब सपने
शिकायत नही पर कोई सपना हक़ीक़त कर दे
एक बार तो मुक़दर मेरा, मेरा कर दे

रंग कोई तो नज़रों में, मेरे भर दे
टुकड़े चंद रोशनी के मेरे हवाले कर दे
क्या पता फिर ना आऊं दुनिया में दोबारा
एक बार तो मुक़दर मेरा, मेरा कर दे

Monday, August 16, 2010

खूब याद रही तुझे कुर्बानी

वैरी आए हम संग खाए
हमको निश-दिन खूब भरमाये
शतक कई फिर गुलाम बनाए
फिर भी भाषा उन्ही की भाए
वाह! रे मेरे हिन्दुस्तानी
खूब याद रही तुझे कुर्बानी

अन्न यहाँ का खूब भला है
जिसमें मेरा पुत्र पला है
लकिन अब हैं विदेश भिजवाए
क्यूंकी चाकरी उन्हीं की भाए
वाह ! रे मेरे वीर अभिमानी
खूब याद रही तुझे कुर्बानी

सूत कात कात बाँधी थी धोती
स्वेत वसन में लगते थे मोती
लकिन अब तो इक प्रश्न खड़ा है
नेता बड़ा या नाग बड़ा है
वाह ! रे मेरे दिशाज्ञानी
खूब याद रही तुझे कुर्बानी

कौन कहे अब कौन समझाए
आज़ादी कोई यूँ ही ना पाए
अविरल अश्रु को पिया था हमने
पशु सम जीवन जिया था हमने
तब जाके जागी थी आबादी
तब कहीं जाकर मिली आज़ादी