Monday, August 16, 2010

खूब याद रही तुझे कुर्बानी

वैरी आए हम संग खाए
हमको निश-दिन खूब भरमाये
शतक कई फिर गुलाम बनाए
फिर भी भाषा उन्ही की भाए
वाह! रे मेरे हिन्दुस्तानी
खूब याद रही तुझे कुर्बानी

अन्न यहाँ का खूब भला है
जिसमें मेरा पुत्र पला है
लकिन अब हैं विदेश भिजवाए
क्यूंकी चाकरी उन्हीं की भाए
वाह ! रे मेरे वीर अभिमानी
खूब याद रही तुझे कुर्बानी

सूत कात कात बाँधी थी धोती
स्वेत वसन में लगते थे मोती
लकिन अब तो इक प्रश्न खड़ा है
नेता बड़ा या नाग बड़ा है
वाह ! रे मेरे दिशाज्ञानी
खूब याद रही तुझे कुर्बानी

कौन कहे अब कौन समझाए
आज़ादी कोई यूँ ही ना पाए
अविरल अश्रु को पिया था हमने
पशु सम जीवन जिया था हमने
तब जाके जागी थी आबादी
तब कहीं जाकर मिली आज़ादी

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