Saturday, September 18, 2010

आशा

आदि अनादि से चली आ रही
अंत अन्नत तक चली जा रही
मन व्यथित और हृदय व्याकुल
आशा निराशा से लड़ी जा रही

तिम गहन की ये मंद रोशनी
व्याकुलता से है मिटी जा रही
मति भरम में उलझी पगली
यथार्थ से है मात खा रही

अश्रु जल की अरी विद्रोहीणी
शुष्क नयन में मिटी जा रही
दुख पर्वत की ये आरोहिणी
देव-शिखर से गिरी जा रही

घोर निराशा बढ़ी जा रही
पर भाग्य से लड़ी जा रही
जग हारे पर ये ना हारे
ये एकाकी ही लड़ी जा रही

आदि अनादि से चली आ रही
अंत अन्नत तक चली जा रही
मन व्यथित और हृदय व्याकुल
आशा निराशा से लड़ी जा रही

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