Tuesday, May 5, 2009

मन

अंधेरे से निकलो
उजाले मैं आओ
मनको ना अपने
तुम इतना भटकाओ

चाहो जिसे कब
तुम वो पाओ
बेहतर इसे अब
तुम ही समझाओ

सुनोगे जो इसकी
तो पछताना पड़ेगा
बिना नाम दुनिया
से जाना पड़ेगा

ये नासमझ जैसे
बच्चे जैसा अड़ा है
ये माटी का
एक कच्चा घड़ा है

चाहो तुम जैसे
इसको बनाओ
बैठा दो फलक पे
या ज़मीन से मिलाओ

उंगली पकड़ कर
इसे चलना सिख़ाओ
हिसाबों की दुनिया का
इसे पहाड़ा पढ़ाओ

जो रखोगे पीछे
तब आगे बढ़ेगा
अकारण ही वरना
ये हर दर अड़ेगा

चमकेगा एक दिन
ये इस जग मैं
डालोगे बेड़ियाँ जो
इसके पग मैं

ये सच है
ये सच्चा है
थोड़ा बुरा है
पर ज़्यादा अच्छा है

ग्यान गीता से
इसको अवगत कराओ
मर्यादा की शिक्षा
इसको दिलाओ

सयम की समता
तुम इसको बताओ
धरम से विवेक
तुम इसका जगाओ

दुनिया मैं धन प्रेम
सबसे बड़ा हैं
सहारे बिना इसके
ना कोई खड़ा है

पर प्रेम भी
ये अकेला बड़ा है
सहारे अगर ना
करुणा के खड़ा है

बोल दो प्रेम के
इसको भी बताओ
करुणा की इसको
तुम मूर्त बनाओ

अभिमन्यु नही इसको
अर्जुन है बनना
हर चकवयूह से है
इसको निकलना

इसको तुम ऐसा
एक युगांतर बनाओ
कलयुग को बदलो
फिर सतयुग बनाओ

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