बंद कमरे की दीवारों पे
क्या तो मैं लिख पाऊँगा
आडी तिरछी लकीरों को
खींच कर खुश हो जाऊँगा
कौन खोले ये दरवाजा
जो बाहर मुझे दिखाई दे
झाँक कर कोने- कोने मैं
बस ये धूल ही तो पाऊँगा
किस कदर है ये बेबसी
जो खोलूं खुद किवाड़ ना
बैठे-बैठे, सोचकर के मैं
ये ज़िंदगी ही तो बिताऊँगा
झाँकना जो चाहूं मैं
परदे खिड़कियों पर हैं लगे
पालूँ ख्वाहिशें भी तो कैसे
बंद हर राह मैं जो पाऊँगा
कौन जाने किस जुर्म में
बंद दीवारों में, मैं हो गया
हवा में लटकाकर के लात
कुछ देर ही तो चल पाऊँगा
बेजान सी अब ये चीज़ें
धिक्कारती हैं मुझको ये
निकलना है तो निकल ले अब
वरना घुटन ही से मर जाऊँगा
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