Thursday, October 8, 2009

झूठे रिश्ते

अजीब रिश्तों मैं उलझ गई है ज़िंदगी
ज़िंदा तो सब है पर मर गई है ज़िंदगी
क्यूँ इस कदर बेबस हो चुके हैं हम
की बहाने ढूँढती है मुस्कुराने के ज़िंदगी

रिश्तों की डोर मैं तनाव इतना ज़्यादा है
इसको तोड़ने का ही जैसे सबका इरादा है
क्यूँ खींचते हो रिश्ते जब मन मानता नही
तोड़ दो ये धागा जब कोई बाँधता नही

कर लिया जब फ़ैसला तो अब सोचते हो क्यूँ?
निभा सकते नही हो जब तो जोड़ते हो क्यूँ?
सोचते जिसको घर हो, बन चुका है मकान वो
फिर रिश्तों का इसमें बाकी रखते हो समान क्यूँ?

अजीब कशमकश मैं ना तू अपनी ज़िंदगी गुज़ार
मर चुके रिश्ते जब , ना बचा तू ये मज़ार
यूँ ना रह ज़िंदा की ना कर पाए तू बंदगी
और फिर ढूँढे बहाने भी मुस्कुराने के ज़िंदगी

No comments: