Wednesday, January 14, 2009

सृजन

ह्रदय पर कुछ बोझ है गहरा
जैसे पुंज पर तम् का पहरा
धुंधला धुंधला है हर चेहरा
कहीं नही है रूप सुनहरा

क्यूँ बेचैनी छाई हुई है
क्यूँ नज़र अकुलाई हुई है
क्यूँ नही दीखता है उजियाला
क्यूँ नही मिटता है ये छाला

हर तरफ़ एक आग लगी है
हर तरफ़ एक राख बिछी है
निराशा का हर तरफ़ है पहरा
दुःख का बदल बहुत है गहरा

सृजन का निशान नही है
मानव की पहचान नही है
अब कौन दिशा को मोड़ेगा
कौन व्यूह को तोडेगा

प्रश्न दर प्रश्न खड़े हैं
उत्तर इनके नही बड़े हैं
जो रवि सा आलोक करेगा
संताप सब का वही हारेगा

कवि मानवता की आस रखेगा
फ़िर से वो इतिहास लिखेगा
जाओ उसको ढूंढ कर लाओ
फ़िर उस से ये काम कराओ

विस्वाश की एक कलम बनाओ
प्रेम रंग में उसे डुबाओ
फ़िर कलम को खूब चलाओ
मीत फ़िर सुंदर गीत बनाओ

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