Wednesday, December 3, 2008

करुणा

एक बूँद सी गहरी दबी
हृदय में जाने कब से छिपी
कभी बाहर आने ना पायी
अंधियारे मन में ही मुरझाई
इतनी सिमटी ऐसे सकुचाई
खो बैठी अपनी तरुणाई

एक बूँद जो गिरी होती सीप में
लो पा जाती उसके दीप में
बन जाती तब मोती अनमोल
जब देता कोई उसको खोल

एक बूँद जब बहार आती
चारों ओर उजास फैलाती
कनक से भी सुंदर कनका
फब्ती उर में बन कर मनका

पर ये हतभागी अब है जागी
भाग्य मिटा , कुछ रहा ना बाकी
अब जो नयनो से झर रही है
गिर कर मृदा में मिट रही है
कोई नही तुझे पहचानेगा
व्यर्थ लवणीय जल ही जानेगा
रहो छुपी तू जहां दबी थी
तेरी ऐसी ही सृष्टि रची थी

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